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मस्त रहो अपनी भक्ति की चरस में. अभिसार शर्मा

चोटिल हूँ, लिहाजा कुछ दिनों से लिख नहीं पा रहा हूँ। हाथ टूट गया है। बडी हिम्मत करके कुछ लिख रहा हूँ। खुद बेबस हूँ, और मेरा पेशा, यानि पत्रकारिता मुझसे भी ज़्यादा बेबस। मेरा तो सिर्फ हाथ टूटा है, मगर मौजूदा पत्रकारिता के हाथ पैर पीछे से या तो बांध दिये गये हैं या तोड़ दिये गये हैं या फिर कुछ ने तो अपनी कलम सौंप दी है। इसे Emotional अत्याचार ना समझें, मगर सोचें ज़रूर! मामला वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता के इस्तीफे का है। उन्होंने इस्तीफा इसलिये दिया या दिलवाया गया क्योंकि उनकी पत्रिका Economic & Political Weekly के board of directors ने, जो पत्रिका का ट्रस्ट चलाते हैं, उन्हे ये आदेश दिया कि Adani business समूह के बारे में लिखे गये दो लेखों को हटाये। Adani गुट पहले ही मानहानी का मुकदमा ठोंकने का नोटिस भेज चुका था। अगर लेख इतने कमजोर थे, तो क्या उन्हें छापने से पहले हकीकत की कसौटी पर परखा नहीं गया था? और अगर विश्वास था तो किस बात का डर? दरअसल, डर सिर्फ मानहानी का नहीं, बल्कि प्रक्रिया का है। फैसला तो जब आयेगा तब आयेगा। मगर उससे पहले महंगी न्यायिक प्रक्रिया से कौन गुजरे। अब प्रक्रिया ही सजा है। Media house पे छापा मार दो, चाटुकार टीवी चैनलों में उसे जम कर उछाल दें, आधा काम वही हो जाता है। ये वो काल है जब मामले की सत्यता मायने नहीं रखती, बस शोर होना चाहिये। झूठ भी चीख चीख कर बोलो। कचरा सोच जनता मान ही लेगी। यह वही जनता है जो मोदीजी की काया से चौंधियाई हुई है। उनके वादों पे कोई जवाब नहीं चाहिये। इसका पेट शब्दों से भर जाता है। और क्या जनता और क्या पत्रकार। तीन साल बाद अब भी सारे सवालों के जवाब, विपक्ष से चाहिये। थकी मरी opposition से। ऐसे पत्रकार कैसे करेंगे सवाल एक ऐसी सरकार से, जो सिर्फ चतुराई से मुद्दों को भटकाना जानती है। ना किसानों पे सवाल, ना शहीद सैनिकों के बढ़ते जनाजों पर सवाल, ना नौकरियों पे सवाल।


 
मोदीजी गाय के नाम पर हो रही हत्याओं पर बोलते हैं मगर अपनी शर्तों पर। Media का कोई दबाव नहीं था उनपर। तीन साल पूरा होने पर कितने पत्रकारों ने इस सरकार और उसकी नाकामी पर उसे कटघरे मे खड़ा किया?

हम यानि पत्रकार खाते हैं अपनी विश्वसनीयता की। अपनी image की। भक्ति काल में हमने इसे ही दांव पे लगा दिया है। चाहे डर, या मौजूदा प्रधान सेवकजी से मंत्रमुग्ध होने के चलते, हमने वो सवाल पूछने बंद कर दिये हैं। अधिकतर media में मुद्दे गायब हैं। और जब सवाल नहीं पूछे जाते या उसकी ज़रूरत नहीं महसूस होती तो फिर ऐसा ही corporate आतंक सामने आता है। जब सम्पादक कमजोर हो जाता है और "मालिक" दिशा तय करता है। अगले सप्ताह supreme court को फैसला करना है के निजता यानि privacy एक बुनियादी अधिकार है या सामान्य अधिकार। मोदी सरकार इसे बुनियादी अधिकार नहीं मानती। हैरानी नहीं है मुझे। ये बात अलग है के सामान्य नागरिकों और समय पर कर्ज न चुकाने वाले धन्ना सेठों के लिये इस सरकार के लिये निजता के अधिकार के मायने बदल जाते हैं। आज आपकी "निजता" कटघरे में है, कल आपके विचारों की अभिव्यक्ति के अधिकार की बारी हो सकती है।

मस्त रहो अपनी भक्ति की चरस में.

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